Kargil Vijay Diwas: कहानी भारत मां के उस वीर सपूत की, जो कहता था – ‘मेरे रास्ते में मौत आई तो उसे भी मार दूंगा’

Toran Kumar reporter..26.7.2023/✍️

Kargil Vijay Diwas: सर्दियों में भारी बर्फबारी की वजह से भारत और पाकिस्तान की सेनाएं ऊंचे पेट्रोलिंग प्वाइंट से नीचे उतर आती थीं. लेकिन पाकिस्तान ने धोखा दिया और 1998-99 की सर्दियों में घुसपैठियों की शक्ल में पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा में घुस आए. सर्दियों में पाकिस्तानी घुसपैठियों ने ऊंचे पहाड़ी इलाकों में अपने बंकर बना लिए. उन्होंने ऐसी जगहों को अपने कब्जे में ले लिया, जहां से वह भारतीय सैनिकों की आवाजाही को आसानी से देख सकते थे. भारतीय सेना को इसका पता चला तो ऑपरेशन विजय शुरू किया गया. कारिगल की पहाड़ियों को घुसपैठियों से खाली कराने के लिए चलाए गए ऑपरेशन विजय में देश के वीर सपूतों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया. ऐसे ही एक वीर योद्धा थे कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय (Captain Manoj Kumar Pandey). आज कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी जानते हैं.

कौन थे कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय
कैप्टन मनोज कुमार पांण्डेय (Captain Manoj Kumar Pandey) गोरखा राइफल्स की पहला बटालियन के वीर योद्धा थे. एक वीर योद्धा को उसकी बटालियन और उसके किए गए कामों के जरिए ही बेहतर पहचाना जाता है. पाकिस्तानी घुसपैठियों को उनके बिलों से बाहर निकालने और चुन-चुनकर मारने के अभियान में शामिल होने के लिए कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय भी 1999 के कारगिल युद्ध में शामिल हुए. कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय का पराक्रम देखकर पाकिस्तानी घुसपैठियों को 11 जून 1999 को बटालिक सेक्टर छोड़कर भागना पड़ा. उन्हीं के नेतृत्व में 3 जुलाई 1999 की तड़के भारतीय सेना ने जौबर टॉप और खालूबार टॉप पर वापस कब्जा किया. खालूबार टॉप पर कब्जे की जंग में कैप्टन मनोज पाण्डेय बुरी तरह घायल हो गए और यहां पहाड़ी की चोटी पर ही उन्होंने आखिरी सांस ली. उन्हें भारत सरकार की तरफ से मरणोपरांत परवीर चक्र से सम्मानित किया गया.

अगर कोई आदमी कहता है कि वह मरने से नहीं डरता है, तो वह झूठ बोल रहा है या फिर वह गोरखा है…’

फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने ये शब्द कहे थे. उनके इन शब्दों को शहीद कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय ने 1999 के कारगिल युद्ध में चरितार्थ किया. दुश्मन की गोलियों से उनका शरीर छलनी हो गया था, लेकिन उन्होंने मौत से आंखें नहीं चुराईं, बल्कि दुश्मन की आंखों में आंखें डालकर उसे मौत के घाट उतार दिया. आखिरी सांस तक उनकी उंगलियां बंदूक की ट्रिगर से नहीं हटीं. अपनी टीम का सामने से नेतृत्व करते हुए उन्होंने अकेले ही दुश्मन के तीन बंकरों को ध्वस्त कर दिया.

मैं मौत को भी मार दूंगा
जिस समय कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय 1999 का कारगिल युद्ध लड़ रहे थे, उस समय वह सिर्फ 24 साल के ही तो थे. लेकिन देशभक्ति का जज्बा ऐसा था कि दुश्मन की रूह भी उनके नाम से कांप जाती थी. तभी तो देश के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान देने से पहले उन्होंने कहा, ‘अगर मेरे खून को साबित करने से पहले मेरी मौत हो जाती है, तो मैं वादा करता हूं कि मैं मौत को भी मार दूंगा…’

कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय ने जो कहा, वह करके भी दिखाया. खालूबार टॉप पर वापस कब्जा करने के लिए उन्होंने जिस जोश, जज्बे और जुनून के साथ दुश्मन पर हमला किया, उससे उन्होंने दुश्मन के हर हथियार को बोना साबित कर दिया.

सीतापुर के सपूत थे कैप्टन मनोज पाण्डेय
कैप्टन मनोज पाण्डेय उत्तर प्रदेश में सीतापुर जिले में रुधा नाम के एक गांव के सपूत थे. 25 जून 1975 को यहां एक ब्राह्मण परिवार में जन्में मनोज पाण्डेय का शुरुआती बचपन गांव में गुजरा, लेकिन बाद में उनका परिवार लखनऊ आ गया. वह बचपन से ही बहुत तेज थे. उन्होंने सैनिक स्कूल से शिक्षा ली और आगे चलकर सेना में करियर बनाने में उन्हें आसानी हुई. उन्होंने सैनिक स्कूल से ही स्वयं को सेना के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था.

परमवीर चक्र जीतने के लिए सेना में आए
12वीं के बाद जब वह NDA परीक्षा में पास हुए तो इंटरव्यू में उनसे खास प्रश्न पूछा गया. ये प्रश्न था – सेना में क्यों जाना चाहते हैं? मनोज पाण्डेय ने इस प्रश्न का उत्तर दिया – परमवीर चक्र जीतने के लिए. आखिरकार उन्होंने देश के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर किया और उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से नवाजा गया. NDA में चुने जाने के बाद मनोज ने पुणे के पास खड़कवासला में मौजूद राष्ट्रीय रक्षा अकादमी से ट्रेनिंग ली.

कारगिल से पहले सियाचिन में थे कैप्टन मनोज पाण्डेय
ट्रेनिंग के बाद मनोज कुमार पाण्डेय को 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट में तैनाती मिली. उनकी रेजिमेंट उस समय जम्मू-कश्मीर में अपनी सेवाएं दे रही थी. उन्होंने शुरू से ही हमले की योजना बनाना, हमला करना और गोरिला युद्ध में दुश्मन को मात देने की लगाएं सीखना शुरू कर दिया. कारगिल भेजे जाने से पहले उन्होंने करीब डेढ़ साल तक सियाचिन में ड्यूटी दी थी और अब शांतिकाल में उनकी तैनानी पुणे होने जा रही थी. लेकिन कारगिल में घुसपैठ की खबरों के बीच उन्हें बटालिक सेक्टर जाने को कहा गया.

कैप्टन मनोज पाण्डेय ने मौके को भुनाया
कैप्टन मनोज पाण्डेय बटालिक जाने की खबर से निराश नहीं हुए, बल्कि वह ऐसे खुश थे, जैसे उन्हें इसी मौके का इंतजार था. उन्होंने बड़ी ही बहादुरी से अपनी टीम का नेतृत्व किया. पाकिस्तानी घुसपैठियों के साथ करीब दो महीने के संघर्ष में उन्होंने कुकरथांम, जूबरटॉप जैसे कई चोटियों से दुश्मन को मार भगाया. 3 जुलाई 1999 को वह खालुबार चोटी पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ रहे थे. उनके आगे बढ़ने पर दुश्मन को उनकी आहट हो गई और घुसपैठियों ने पहाड़ियों के पीछे छिपकर अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी.

दुश्मन की तरफ से फायरिंग होते देख कैप्टन मनोज पाण्डेय ने रात होने का इंतजार किया. अंधेरा होने पर उन्होंने अपने साथियों से बात करके दो अलग-अलग रास्तों से आगे बढ़ने की रणनीति बनाई. उनकी यह रणनीति काम कर गई और पाकिस्तानी घुसपैठिए उनके झांसे में आ गए. कैप्टन मनोज पाण्डेय को मौका मिला और उन्होंने दुश्मन के बंकरों पर हमला करके उन्हें उड़ाना शुरू कर दिया. इससे पहले कि दुश्मन कुछ समझ पाता, तीन बंकर नेस्तनाबूत हो चुके थे.

वीर की शहादत के बाद तिरंगा लहराया
अभी उनका काम पूरा नहीं हुआ था, जैसे ही उन्होंने चौथे बंकर को ध्वस्थ करने के लिए कदम आगे बढ़ाए… पाकिस्तानी घुसपैठियों ने उन पर गोलियां बरसा दीं. कैप्टन मनोज पाण्डेय लहुलुहान हो गए. उनके साथियों ने उन्हें कवर दिया और आगे न बढ़ने को बी कहा, लेकिन वह कहां मानने वाले थे. वह चाहते थे कि वह स्वयं खालुबार टॉप पर तिरंगा लहराएं. कैप्टन मनोज पाण्डेय के शहीद होने के बाद उनके साथियों ने पाकिस्तानी घुसपैठियों को दौड़ा-दौड़ाकर मारा. इस तरह खालूबार टॉप पर एक बार फिर तिरंगा लहराया, लेकिन देश ने एक जांबाज सिपाही को खो दिया.

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